प्रयागराज शहर में हम अब तक बहुत सारी गलियों में घूम चुके थे। कुंभ मेले के चक्कर में इस शहर से जुड़ा इतिहास दिमाग में नहीं आ रहा था। मुझे नहीं याद आ रहा था चन्द्रशेखर आजाद का वो बलिदान। जब अंग्रेजों के सामने वो अकेले ही भिड़ गए थे और अंत में आखिरी बची गोली पर अपना नाम लिख दिया। मैं उस पार्क के पास ही था, जहां साहस के प्रतीक, देशभक्त चन्द्रशेखर आजाद ने अपनी कुर्बानी दी थी।
मेरे स्थानीय दोस्त के पास स्कूटी थी। मैं उनके साथ ही पार्क निकल पड़ा। कुछ ही देर बाद हम चन्द्रशेखर आजाद पार्क के गेट नं. 3 पर खड़े थे। हमने टिकट विंडो से अंदर जाने के लिये टिकट लिया जो 10 रूपये का था। हम अंदर चल दिये। अंदर घुसते ही ठीक सामनेचन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति दिखती है। जिसमें वो अपनी मूंछों पर ताव दे रहे हैं।
अदम्य और आजाद
पार्क बेहद ही करीने से सजाया हुआ था। चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति के ठीक आगे बहुत सारे फूल अर्पित थे। मूर्ति के पास जाने के लिये एक चबूतरा चढ़ना पड़ता है। हर कोई उस चबूतरे पर जूते-चप्पल उतारकर जा रहा था, मानो किसी मंदिर पर जा रहे हों। मंदिर जैसा ही तो है ये सब और आजादी के लिये कुछ कर गुजरने वालों के लिये मूंछे ऐंठने वाला प्रेरणास्रोत है।
मेरे साथी ने बताया कि इस समय पार्क के कुल पांच गेट हैं। पहले सिर्फ दो गेट थे। बाद में बाकी गेटों को बनवाया है। इन गेटों के नाम चन्द्रशेखर आजाद के साथियों के नाम पर हैं। जैसे रामप्रसाद बिस्मिल, सुखदेव, राजगुरु और भगत सिंह। मूर्ति के पीछे मुझे एक बड़ा-सा पेड़ था। मैंने अपने साथी से पूछा, अच्छा ये वही पेड़ है, जिसके पीछे खड़े होकर चन्द्रशेखर आजाद ने अंग्रेजी सिपाहियों को मार गिराया था। दोस्त ने बताया कि ये वो पेड़ नहीं है, दरअसल अब वो पेड़ है ही नहीं।
जिस जगह पर आज चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति बनी हुई है, वहीं पेड़ था। लेकिन जब पेड़ नहीं रहा तो चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति बना दी गई। मैं चन्द्रशेखर आजाद की इस मूर्ति और ओरछा के आजादपुर में बनी मूर्ति की तुलना करने लगा। मुझे इस मूर्ति में वो बलिष्ठता नहीं दिख रही थी जो ओरछा में दिखी थी।
इतिहास के पन्ने से
27 फरवरी 1931 की तारीख थी। चन्द्रशेखर आजाद अपने साथी सुखदेव के साथ आनंद भवन से मीटिंग करके इस पार्क में आकर बैठ गए। उस समय भगत सिंह जेल में थे। उनको जेल से छुड़ाने की योजना पर बात चल रही थी। तभी किसी ने अंग्रेजों को इसकी खबर कर दी। थोड़ी ही देर में अंग्रेजों ने पार्क को घेर लिया। आजाद को जैसे ही इस बात का आभास हुआ। उन्होंने सुखदेव से निकलने को कहा और खुद पेड़ के पीछे छिपकर अंग्रेजों का सामना करने लगे।
दोनों तरफ से फायरिंग होने लगी। आजाद ने अपनी गोली से कई सिपाहियों को निशाना बना लिया था। जब उनके पास सिर्फ एक ही गोली बची थी तो उन्होंने वो साहसी काम किया। खुद को गोली मारकर देश के लिये कुर्बान कर दिया। उन्होंने कहा था कि अंग्रेज मुझे कभी जिंदा नहीं पकड़ पाएंगे। मैं आजाद हूं और आजाद रहूंगा। उसी आजादी का प्रतीक है ये पार्क। जो पहले कंपनी गार्डन और फिर अल्फ्रेड पार्क और अब चन्द्रशेखर आजाद प्रतीक है।
मैं तो कुंभ देखने आया था लेकिन अब इस शहर के महान इतिहास को जान रहा था। जो इस जगह पर आए बिना हो ही नहीं सकता था। जो इस शहर में आएं तो संगम जाएं ही जाएं पर इस जगह पर आना न भूलें। ये हमारा अतीत है, महान अतीत। ये धरा है आजाद के बलिदान की, ये शहर इलाहाबाद है। सरकार चाहे जितने नाम बदल ले, लेकिन इस जगह पर आकर आजाद और इलाहाबाद ही निकलेगा। मैं पार्क से निकल आया लेकिन जेहन में मूंछ ऐंठते हुए वो चेहरा छाप छोड़ गया।
ये अलहदा सा यात्रा-वृतांत हमें लिख भेजा है ऋषभ देव ने। अपने बारे में वो बताते हैं, अपनी घुमक्कड़ी की कहानियां लिखना मेरी चाहत और शौक भी। जो भी देखता हूं, उसे शब्दों में उतारने की कोशिश में रहता हूं। कहने को तो पत्रकार हूं, लेकिन फिलहाल सीख रहा हूं। ऋषभ मूलतः वीरों की भूमि बुंदेलखंड से हैं।
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