कई दिनों के दिमागी उथल-पुथल के बाद मेरी कहानी की खोज अयोध्या में संतो के पैरों की शोभा बढ़ाते मुस्लिमों के बनाएं खड़ाऊं पर आकर रुकी। यह बात सुनने में थोड़ी अटपटी लग सकती है। लेकिन अयोध्या में प्रेम एक सामाजिक धागा जो मजहबी प्रेम में एक सूत्र में पिरो रहा है वह है, सौहार्द।
नमस्कार मेरा नाम अभिषेक है और ‘अलहदा अयोध्या’ के इस सीरीज में आपकी भेंट कुछ अनसुनी बातों से कराउंगा। जिनका वर्णन मेनस्ट्रीम मीडिया में मसाला ना मिलने के कारण कहीं नहीं होता। खड़ाऊं, जिसका इस्तेमाल वेदों और पुराणों के समय से लेकर आज तक हिन्दू धर्म में होता चला आ रहा है। इसका जिक्र होते ही दिमाग में साधु-संतो की खड़ाऊं यानी लकड़ी की चप्पल पहने एक साधु की छवि बनती है। खैर, अब सीधे आपको बिना ज्यादा इधर-उधर की बातों में घुमाए, आपका परिचय उस अनसुनी बात से कराते हैं।
दादा-परदादा के जमाने से कर रहे खड़ाऊं का काम
खड़ाऊं बनाने वाले वाले मो. आजम हल्की मुस्कान चेहरे पर लिए हुए कहते है, “भईया हमारा ये काम हमारे दादा-परदादा के जमाने से चला आ रहा है और लगभग सौ साल से भी ज्यादा समय से ये काम हमारा परिवार करता चला आ रहा है।”

मो. आजम के चेहरे पर जो गर्व और संतोष का भाव, अपने काम के इतिहास को बताते वक्त था, वह मुझे बहुत मायनों में मुंशी प्रेमचंद जी के ईदगाह के हामिद की याद एकाएक दिला जाता है। आजम आगे बताते हुए बोलते हैं, “यह काम उन्होंने होश संभालने के साथ ही करना चालू कर दिया और आज इसी काम के बदौलत वह अपने परिवार की रोजी-रोटी सही से चला रहे हैं।”
कई हिन्दू कारीगरों को भी रोजगार देते हैं मो आजम
मो. आजम के खड़ाऊं कारखाने में कई हुनरमंद कारीगर काम करते हैं, जिनमें हिन्दू भी शामिल हैं। मैंने पूछा कि हिन्दू-मुस्लिम के एक साथ काम को लेकर कभी किसी प्रकार का मतभेद हुआ क्या!?
इस पर मो. आजम मुझे लगभग टोकते हुए बोलते हैं कि, “वह काम को किसी धर्म से नहीं जोड़ते हैं, ना ही कभी जोड़ेंगे। काम खुद के धर्म की तरह होता है और इसको पूरी ईमानदारी से करना चाहिए।” अपनी इस बात से मो. आजम ने कर्म ही पूजा वाली कहावत को चरितार्थ होने वाली बात का प्रमाण भी दे दिया।
अयोध्या अब आगे बढ़े
सिर्फ राजनीति के नाम पर मुस्लिमों और हिन्दुओं का इस्तेमाल काफी समय से चला आ रहा। लेकिन बदलते वक्त में उन्हें अब इस राजनीति से इतर कुछ विकास की बातें करनी होगी। जिससे ना सिर्फ कुछ बदलाव आए बल्कि अयोध्या के रामराज्य के सपने को सच में भी बदलता हुआ नजर आए तो अच्छा है।

सामाजिक छवि ठीक करने की जरूरत
अयोध्या की छवि और फिक्र मो. आजम के बातचीत में साफ दिखता है। मो. आजम कहते हैं, “हमारी जमीनी सच्चाई मीडिया द्वारा दिखाई गई छवि से अलग है। मैं हर त्योहार पर अपने हिन्दू दोस्तों के घर जाता हूं और वह भी हमारे घर आते हैं।” आगे अपनी बात पर बल देते हुए वे कहते हैं, “अयोध्या में ऐसे बहुत से लोग हैं जो अमन-चैन के साथ, बिना हिंदू-मुसलमान किए जीवन यापन कर रहे हैं।”

कई जिलों के मठ-मंदिरों के साधु-संन्यासी को निर्यात होते खड़ाऊं
मो. आजम बताते हैं कि उनके कारखानों के बनाएं खड़ाऊं की मांग आज कई जिलों में है। इनमें गोरखपुर, सुल्तानपुर ,और प्रयागराज प्रमुख है। इन जिलों के मठ-मंदिरों के साधु-सन्यासियों के पैरों की शोभा बढ़ाते ये खड़ाऊं हमारी अयोध्या को अलहदा बनाते हैं।
एक बात, जो अंत में कहनी है वह बस इतनी सी है कि खड़ाऊं ने अयोध्या की मजहबी पूरानी बातों को न सिर्फ एक सिरे से नकारा है बल्कि उन दुष्प्रचारों पर भी कंटाप रसीद कर रखा है जो सिर्फ अपनी-अपनी दुकानों को चलाने के लिए किया जाता रहा है।
(ये कॉपी चलत मुसाफ़िर के साथ इंटर्नशिप कर रहीं शिल्पी ने एडिट की है।)
‘अलहदा अयोध्या’ नाम की ये सीरीज अभिषेक पांडेय लिख रहे हैं। अभिषेक चलत मुसाफ़िर के साथ इंटर्नशिप कर रहे हैं। अपने बारे में अभिषेक बतात हैं, मैं अयोध्या से हूं। पत्रकारिता का छात्र हूं बरेली में। बहुत कुछ एक साथ करने का इरादा रखता हूं क्योंकि जिंदगी राम भरोसे है। बाकी लिखना और पढ़ना मेरा पसंदीदा काम है और शायद यहीं मेरे लिए आराम है।
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बहुत सुंदर प्रस्तुति अभिषेक पांडे ❤️ और अयोध्या का यह किस्सा बहुत शानदार